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Showing posts from November, 2005

हम फिल्में क्यों देखते हैं - अनुगूँज १५

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जब से अनुगूँज का विषय घोषित हुआ है, सोंच रहा हूं, इस बार मैं भी लिख ही दूं वैसे भी यह वर्षगाँठ स्पेशल है, और विषय भी ऐसा है कि इस पर 'कुछ' लिखा जा सकता है. तो जैसा कि सुनील जी पहले ही 'हम' को परिभाषित करने की कोशिश कर चुकें हैं. यहाँ तो मैं सिर्फ यह लिखूंगा, कि मैं फिल्में क्यों देखता हूँ... सौभाग्यवश मैने सेटेलाइट व केबल टी.वी. को अपनी उम्र के साथ बढते देखा है,और मेरे विचार में केबल के आने के बाद से ही भारत में फिल्में गाँव ग़ाँव में देखी जाने लगी, अन्यथा, जैसा कि 'बुजुर्ग' लोग कह रहे हैं कि उनके बचपन में सिनेमा जाने पर कितनी पाबंदी होती थी और वैसे भी ये सर्वसुलभ नही होते थे...कभी मेले-तमाशे में जरूर आ जाया करते थे... तो फिर मूल प्रश्न पर आया जाये, कि मैं फिल्में क्यों देखता हूं.दरअसल अपनी छोटी सी जिन्दगी में उम्र के हर पडाव पर, इस सवाल का मेरा जवाब अलग अलग रहा होता...आज सब जवाबों को एक साथ Compile करने की कोशिश करता हूँ. फ़िल्में देखने की मेरी पहली यादें जुडी हुई है,'८६-८७ के करीब हमारे पुराने मकान में आये नये नये टी.वी. से. जमाना सिर्फ दूरदर्शन का था और टी

भारतीय व्यवसायिक ढाँचे (Indian Business Models)

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अमरीका और अन्य विकसित देशों में रहने वाले साहबान तो 'वाल-मार्ट' एवं 'के-मार्ट' जैसे स्टोर्स से परिचित होंगे ही, जहाँ आपको एक ही छत के नीचे तमाम तरह की वस्तुएं उपलब्ध होती हैं...भारत में भी महानगरों में माल-संस्कृति धीरे धीरे अपने पैर पसार रही है और यहाँ धडल्ले से कई रिटेल-स्टोर्स खुल रहे हैं.लेकिन हम आपको दिखाते हैं अपने 'इंडिया' का एकदम देसी शोपिंग स्टोर.आप इसे देसी वाल-मार्ट भी कह सकते हैं.वैसे ज्यादा उचित यह कहना होगा कि वाल मार्ट इन देसी दुकानों का अमेरिकन संस्करण है क्योंकि इन दुकानों के मुकाबले इसकी अवधारणा एक्दम नई है, वाल-मार्ट तो करीब '६० के दशक में अस्तित्व में आये हैं जबकि ये दुकानें, भारतीय गाँवों में सदियों से चली आ रही हैं. एक बात और, कई मामलों में इनकी सेवाएं(services),काफी आगे हैं, मसलन, ग्राहक यहां से सिर्फ सामन ही नही खरीदते, वरन् यहाँ अनाज एवं अन्य 'जींस'बेचे जाने की सुविधा भी है, यानी किसान यहाँ अपनी फसल भी बेच सकता है, और हाँ, एक बात तो हम भूल ही गये, आपको यहाँ, वित्तीय सुविधाएं(Financial Services) भी उपलब्ध हैं , यानी यहाँ से आप

नजरिया

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यह तस्वीर आज मेल में प्राप्त हुई.य़ह एक Optical Illusion(हिन्दी में शायद, दृष्टिभ्रम) है.ज़ब आप दोनो चेहरों जो पास से देखते हैं तो बांई ओर वाल चेहरा गुस्से में प्रतीत होता है और दाँयी ओर वाला सहज मुस्कान में. अब जरा अपनी कम्प्यूटर स्क्रीन से १०-१२ कदम दूर जाइये और पुनः दोनो चेहरे देखिये, स्थिति एकदम विपरीत दिखाई देगी, बाँई ओर वाल चेहरा सामन्य, सहज और दाँयी और वाला गुस्से में...ऐसा क्यों हुआ? तस्वीर वही, देखने वाल मैं वही,बदला क्या? सिर्फ दूरी...या नजरिया? य़ही बात कई बार मैं असल जिन्दगी में भी महसूस करता हूँ...लोग वही रहते हैं,मिलने वाले, देखने वाले,जानने वाले, पर फिर भी सब कुछ बदल जात है, सिर्फ एक चीज़ के बदलने से...देखने का नजरिया, या फिर कहें, आपका दृष्टिकोण...वक्त, हालत, परिस्थितियाँ, सब कुछ आपके नजरिये(या कहें Perception)पर निर्भर करती हैं... गिलास किसी को आधा खाली दिखता है, और किसी को आधा भरा,और यहीं सब कुछ इधर का उधर हो जाता है.आप कहाँ खडे हैं, किसके बारे में कैसा महसूस करते हैं, और क्यों करते हैं, सब कुछ यहीं आकर टिकता है.....

आपके मेल आइ-डी का पता...?

हिन्दुस्तान मे अभी भी अच्छे-अच्छे पढे लिखे और महानगरों में रहने वाले लोगों की इन्टरनेट और कम्प्यूटर के बारे क्या जानकारी और स्थिति है, इसकी एक बानगी... यह अनुभव अभी हाल ही में अपने हैदराबाद प्रवास के दौरान हुआ...संबन्धित व्यक्ति का नाम नही लिखूंगा, वैसे मुझे आशा नही कि इस लेख तक उनकी नजर कभी पहुँचेगी, फिर भी गर कभी पढें और उन्हे बुरा लगे तो अग्रिम क्षमा... तो साहब, अपने काम के सिलसिले में मै इन हजरात से मिलने पहुँचा.अपने विषय पर में इनकी जानकारी और पकड वाकई काफी गहरी थी, स्वतंत्र सलाहकार(Private Consultant) होने के अलावा ये उस विषय पर गठित कुछ समितियों के सदस्य भी हैं...पर चूँकि मै उन्हे कुछ सलाह राशि(Consultancy Fee) तो अदा कर नही रहा था बस एक अन्वेषक (Researcher)के नाते जितना कुछ फोकट में झाड सकता था और जितना कुछ वे बिना लिये बता सकते थे...वो मैने उनसे जाना और उन्होने मुझे बताया. चलते चलते मैने उनसे उनका मेल आइ-डी मांग लिया, ताकि भविष्य में जरूरत पडने पर संपर्क कर सकूं.उन्होने जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकालते हुए मुझे दो आइ-डी बताये और बोले, ये ऊपर वाला हैदराबाद का, और नीचे वाला

टिप्पणी.....?

अभी फुरसतिया जी की टिप्पणी-व्याख्या पढी, तो ये बात याद आ गयी. हैदराबाद प्रवास के दौरान भोलाराम से मिलना हुआ जो अपने जीवन की कुछ बा तें ब्लोग के माध्यम से व्यक्त करते हैं....वैसे भोलराम से हमार रिश्ता स्कूली दिनों से पहले है और एक ब्लोगर के रूप में बाद में...नवोदय विद्यालय पचपहाड में ये हमारे जूनियर थे... काफी दिनों बाद मिलना हुआ... बातों बातों में मैने पूँछा, यार आजकल लिखते नही हो कुछ ब्लोग पर...तो बोले, लिखना तो चाहता हूँ पर टिप्पणियों से डरता हूँ, मैने पूँछा क्यों, तो पता चला कि अभी थोडे दिन पहले भोला के एक पोस्ट पर 'तेज रफ्तार लेन में गाडी चलाने वाले' अतुल जी ने करारी टिप्पणी कर दी थी, कि क्या ये अपनी रामकहानी लिखते रहते हो...कुछ " अच्छा " लिखो...तो बेचारे भोला घबरा गये... खैर मैने उसे ढांढस बंधाया ..सो फिर बेचारा लिखने को तैयार हुआ है...अभी तक तो लिखा नही, देखते है, कब जागता है ;-)

वापसी

काफी दिनों बाद यहाँ लिखने का मौका मिला है...करीब एक सवा महीना हो गया...कैसे दिन बीते, पता ही नही चला..करीब एक महीने से फील्ड में था...लगभग ६००० किलोमीटर और चार राज्यों(झारखंड,उडीसा,आंध्रप्रदेश और छत्तीसगढ)का सफर... अनगिनत लोगों से मिलना,तरह तरह का खान पान,बोल-चाल,खट्टे-मीठे-क़डुवे अनुभव...जब फील्ड में होते हैं तो रोज कुछ नया महसूस होता है,नया अनुभव होता है, इतना कुछ होता है वहाँ लिखने के लिये, लेकिन लिखने का मौका नही मिलता...और कालेज पहुँचने के बाद फिर जिन्दगी में एकरसता आ जाती है क्योकि वहां बँधा-बँधाया ढर्रा चलता है, और व्यस्तताएं इतनी होती हैं कि बस.. बाहर साइबर कैफे पर जाकर तो हिन्दी मेल भी नही पढ सकते(हर जगह '९८), लिखना तो दूर कि बात, सबसे पहले तो यूनिकोड फान्ट डालना पडता है...खैर अब सारी कसर निकालने की कोशिश करूंगा(लिखने और पढने दोनो की) क़ल वापस उदयपुर पहुँचे है, अभी २-३ दिन गुजरात और जाना है, फिर रिपोर्ट बनानी है और फिर प्रस्तुतीकरण (presentation)उदयपुर और दिल्ली में...वापस IIFM पहुँचने तक ५ दिसम्बर हो ही जायेगी... दिवाली इस बार बडी फीकी रही, हैदराबाद में था...कोई साथ नही