पढने का शौक - भाग -१

यह संस्मरण पहले एक ही बैठक मे ही लिखने का विचार किया था...पर लिखने लगा तो लगा कि एक बैठक में तो मै यह सब बयाँ कर ही नही सकता...पहली वजह तो यह कि एक बार में इससे ज्यादा हिन्दी टाइप करने की क्षमता और धैर्य मुझमें है ही नही...और वजह(यनि बहाने)सोंचते सोंचते ध्यान आया कि हिन्दी ब्लाग जगत के बडे नडे सूरमाओं ने अपने कई चिट्ठे कई कई कडियों में लिखे है...तो सोंचा...कि क्यों न उन्ही के पदचिन्हों पर ही चला जाये...शायद हम भी "कहीं" पहुँच जायें.

तो सबसे पहली बात तो यह कि यहाँ पढने से मतलब "पढाई" से कतई न लगाय जाये, ऐसा इल्जाम अपन को एकदम नाकाबिलेबर्दाश्त होगा...वो इसलिये क्योंकि उसका शौक अपन को कभी रहा ही नही. बचपन से पढाई से तल्लुक सिर्फ इतना, कि बस किसी तरह काम चल जाये.लेकिन पढाई के अलावा बाकी सब जो पढने का नशा है वो ऐसा चढा हुआ है कि छूटता ही नही, ना छोडने की इच्छा है और ना ही इसकी कोई उम्मीद्.पढने की यह आदत मेरे जीवन के शुरु से ही शुरु हुई यानि काफी छुटपन से..करीब पाँच छ साल कि उम्र से ..जब कि इतनी शिक्षा हमारी हो चुकी थी कि किताबों मे लिखे हुए शब्द आराम से पढ और समझ लेते थे चस्का कब और कैसे लगा ये तो याद नही...हाँ पर यह जरूर याद है कि पापा जब भी बाहर जाया करते थे तो हमारी सिर्फ एक ही फरमाइश हुआ करती थी...किताबें..इनमें मुख्य रूप से शामिल थी चंपक,नन्दन,बालहंस,बाल भारती इत्यादि..चूँकि कस्बा हमारा उस समय तक बहुत छोटा था सो बच्चों की कोई भी पत्रिकएं वहाँ मिलने का कोई सवाल ही नही था.कामिक्स पढना भी इतना चलन मे नही था हाँ गर्मी की छुट्टियों मे जरूर कुछ कमिक्सें किराये पर उपलब्ध हो जाया करती थी.बचपन में धर्मिक पुस्तकें भी बहुत पढी.धार्मिक वतावरण घर में शुरु से ही है सो रामयण्, महाभरत के युद्द्ध प्रसंग उस समय मैने कई कई बार पढे और लगभग हर पात्र के बारे में, कि किसको किसने मारा और कैसे...मुझे सब याद थ...बाकि प्रसंग मैं नही पढता था क्योंकी वो मेरे सिर के ऊपर से गुजरते थे सन ८७-८८ के करीब हम लोग हरिद्वार गये थे...वहाँ से ढेर सारि गीता प्रेस गोरखपुर की पुस्तकें लाये थे...आज भी में छुट्टियों मे घर जाता हू तो कभी कभार उन्हें पढ लेता हू पर उस समय तो मेने उन्हें खूब पढा.आज भी मै मानता हू कि छोटे बच्चों के लिये गीताप्रेस से अच्छा कोई साहित्य नही.वीर बालक, आदश बालक, शिक्षाप्रद कहानियाँ और भी न जाने क्या क्या ...(अब तो काफी कुछ भूल गया हूँ)

समय बीतता गया और कुछ सालों बाद हमने अपने आप को घर से दूर एक बिल्कुल अलग वतावरण और एकदम नई जगह पर पाया.यह स्थान मेरी भावी जिन्दगी की नींव बनने वाला था और अपने जीवन के कई महत्त्वपूर्ण सबक मुझे यही प्राप्त होने थे..जगह थी जवाहर नवोदय विध्यालय , पचपहाड..मै उस समय कक्षा छ मे था,छठी से आठवीं तक तथा ११वीं व १२ वीं कक्षा की पढाई मैने यही की...बीच में नवीं व दसवीं जवाहर नवोदय विध्यालय, मलमपुझा, केरल से...खैर स्कूल कि यादें फिर कभी..अभी पढने के शौक के बारे में...

तो एक नुकसान तो हमरा यहाँ यह हुआ..कि कामिक्स और अन्य पत्रिकएं बिल्कुल बन्द हो गएं...स्कूल के सख्त अनुशासन के तहत ये सब वस्तुएं छात्रावास मे निषिद्ध थी.एक फायदा यह हुआ...कि जिन्दगी(जिसके हमने अभी ८-९ साल ही बिताए थे) मे पहली बार पुस्तकालय जैसी जगह से हमारा वास्ता पडा. सप्ताह में हमरा पुस्तकालय का एक पीरियड्(कालांश) होता था)..और उस का हमें बडी बेसब्री से इन्तजार होता था...उस दिन हमें एक नई किताब जारी की जाती थी(जिसको पढने में मुझे २ घन्टे भी नही लगते थे...)बाकी का पूरा सप्ताह दोस्तो से किताबों की अदला बदली में बीतता था...यहाँ हमारा पहली बार प्रेमचन्द्, शरतच्द्र जैसे लेखकों से परिचय हुआ...प्रेमचन्द् की लगभग सारी प्रसिद्ध कहानियाँ और शरत बाबू के कई उपन्यास हम सातवीं आठवीं तक पढ चुके थे..

किस तरह छात्रावास में छुप कर कामिक्स का आदान प्रदान होता था यह अगली बार...

Comments

भाई,

ये तो मेरी कहानी है ! लगता तो सिर्फ ये है कि आपने पात्र और स्थान ही बदले हैं.

आगे के भाग का इंतजार रहेगा !

आशिष
nitin bhai
upar ka comment shayad mera bhi hee he. kyonki ghar ka mahol hame bhi kuchh aisa hee mila. lekin jis tarah se aapne sansmaran likha he usse naya bhag padhne ki utsukta badh gayi he. sach much aapki lekhan shaily kafi rochak he.
bhaskar
Bhola Meena said…
यार नवोदया की बहुत याद आती है । जब भी अकेला महसुस करता हु नवोदया की बहुत याद आती है। नवोदया मे पी टी करने की इच्छा नही होती थी पर अब पी टी करनी की याद आती है ।
और कैसा चल रहा है??

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