Posts

Showing posts from 2005

सुर्खियों में....

IISc पर हमला भारतीय विज्ञान संस्थान पर परसों रात हुए आतंकवादी हमले को देश् की बौद्धिक संपदा पर हमले के रूप में देखा जा सकता है ...साथ ही ये इस और भी संकेत करता है, कि आतंकवादी अब राजनैतिक और धर्मिक निशानों के अलावा अन्य निशाने भी ढूंढ रहे हैं... आज विश्व में भारतीय वैज्ञानिकों, प्रबंधकों और तकनीकी विशेषज्ञों को जो सम्मान प्रप्त है, वो IISc जैसे संस्थानों की ही देन है, अतः कोई आश्चर्य नही कि आतंकवादी इन्हें निशाना बनाने का प्रयास करें.. IIT दिल्ली के प्रो.पुरी को श्रृद्धांजली आमिर खान की शादी आमिर खान और किरण राव की शादी मीडिया की सुर्खियाँ बनी हुई है, पर एक और शख्स जो इस शादी से सबसे ज्यदा आहत(या प्रभावित) हुआ होगा, उस पर किसी का ध्यान नही गया, आमिर की पहली बीवी, रीना. उन्होने आमिर से तब शादी की थी, जब आमिर सुपरस्टार नही थे, और फिल्मी दुनिया में उनके पैर जमें नही थे, लगान के निर्माण के समय भी रीना ने आमिर की कम्पनी को पूरी तरह संभाला था.दोनो का तलाक कुछ समय पहले हुआ. बडा आश्चर्य होता है कि कोई कैसे १६ साल एक साथ रहने के बाद एक दूसरे को छोड सकता है. अभी २-३ दिन पहले दैनिक भास्कर में इस

वर्ष २००५ में पढी गई पुस्तकें

आज अवलोकन-२००५ के अंतर्गत, पाठ्यक्रम के अतिरिक्त वे पुस्तकें जिन पर हाथ साफ करने में सफल हुआ... Life of Pi by Yann Martel Da vinci Code by Dan Brawn गुनाहों का देवता कृति धर्मवीर भारती गोरा कृति रवीन्द्र नाथ टैगोर Four Blind Mice by James Patterson *Harry Potter & Half Blood Prince by J K Rowling State of Fear by Michale Crichtone Deception Point by Dan Brawn *Angels & Damons by Dan Brawn *Digital Fortress by Dan Brawn A Thousand Suns by Dominique Lappire O Jerusalam by Dominique Lappire & Larry Collins Devil's Alternative by Fredrick Forsyth मेरा गाँव, मेरा तीर्थ कृति अन्ना हज़ारे Out of my Confort Zone by Steve Waugh Sony by John Nathan Rage by Jonathan Killerman आखिरी दो किताबें अभी चल रही हैं, २-४ दिन में खतम हो जायेंगी. जिन किताबों के आगे * चिन्ह लगा हुआ है उनकी सिर्फ Soft Copy उपलब्ध थी...पर चूँकि पढना जरूरी था...सो दो-दो तीन-तीन दिन तक कम्प्यूटर जी के साअमने आँखें गडाए बैठे रहे ;) उम्मीद करता हूँ कि २००६ के लिये ये सूची और भी लम्बी ह

अवलोकन-२००५

वर्ष २००५ बीत रहा है...आखिरी ८-९ दिन बचे है, और जिधर देखो उधर अलविदा २००५ का शोर सुनाई दे रहा है.मैंने सोंचा क्यों न खुद भी २००५ में अपनी आप बीती का अवलोकन किया जाये और देखा जाये कि कैसे बीता ये साल... सबसे पहली बात तो, यह साल सही मायनों में मेरे लिये घुमंतू साल रहा, इस साल जितना घूमा उतना पहले कभी नही. झारखंड, उडीसा, आंद्रप्रदेश ,मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और खुद अपने राजस्थान के कई हिस्से नाप डाले. साल शुरू हुआ, झारखंड में चाईबासा के एक वन विभाग के विश्राम गृह से, जहाँ की बिजली, बिल न भरे जाने के कारण काट दी गई थी, याने ३१ दिसंबर २००४ की रात को(और १ जनवरी २००५ की सुबह) हम निपट अंधेरे में थे...फिर एक हफ्ता राँची रह कर वापस भोपाल में तीसरा Term पढाई की. अप्रेल मध्य से फिर निकले Organisational Training-I के लिये. उडीसा के ७-८ जिले और मध्यप्रदेश में शहडोल. फिर जुलाई से चौथा Term और फिर सितम्बर अंत में Organisational Training-II के लिये, पहले उदयपुर और आसपास, फिर राँची, भुवनेश्वर, हैदराबाद, रायपुर, गुजरात आदि.... धन्यवाद IIFM इन सब जगहों और यहाँ के लोगों को नजदीक से देखने का मौका देने के लिये

अपनी 'खोल' से बाहर...

बहुत दिनों से मैने कोई किताब नही पढी. २ महीने से बाहर होने की वजह से समय भी नही मिल पाता था...बीच में पाउलो कोहेलो की "द अल्केमिस्ट" पढी थी, पर वो मैने पहले ही पढी हुई थी...इसके अलावा सुरेन्द्र मोहन पाठक के एक्-दो उपन्यास ट्रेन में पढे थे, पर कोई serious reading नही हुई थी. कल स्टीव वा की आत्मकथा,"आउट आफ माय कम्फ़र्ट जोन" (Out of My comfort Zone) हाथ लगी है, उसे निपटा रहा हूँ, इस सप्ताह में खत्म करने का मानस बनाया है.हिन्दी में शायद इसका मतलब होगा, "अपने सुरक्षा कवच(या 'खोल') से बाहर"... आमुख की दो पंक्तियाँ काफी अच्छी लगी,यहा चिपका रहा हूँ "....I have come to learn that life wouldn't be as enjoyable if it was always easy, and that personal growth comes from having to move out of your comfort zone...." मैने भी कई बार अनुभव किया है कि इस Comfort Zone से एक बार निकलना काफी मुश्किल होता है, किन्तु यदि निकल गये, तो काम मे बडा मजा आता है और सफलता की संभावना भी ज्यादा रहती है....लेकिन इस जंजीर को तोडना होता बडा दुष्कर है...
लगता है, समय खराब चल रहा है...पहले मोबाइल खोया था, उसके झटके से उबर कर अब नया लेने का विचार कर रहा था, कि कल कम्प्यूटर का मदरबोर्ड "उड" गया...यानि दो-ढाई हजार का खर्च फिर सर पे...वारंटी भी दो महीने पहले निकल चुकी है...:(..सारा वित्तीय इंतजाम गडबड हो गया . खैर, वापस IIFM पहुँच गये हैं, फिर वही पुरानी दिनचर्या और जिन्दगी...ऊपर से इस बार शेड्यूल बहुत 'टाइट' है...

हम फिल्में क्यों देखते हैं - अनुगूँज १५

Image
जब से अनुगूँज का विषय घोषित हुआ है, सोंच रहा हूं, इस बार मैं भी लिख ही दूं वैसे भी यह वर्षगाँठ स्पेशल है, और विषय भी ऐसा है कि इस पर 'कुछ' लिखा जा सकता है. तो जैसा कि सुनील जी पहले ही 'हम' को परिभाषित करने की कोशिश कर चुकें हैं. यहाँ तो मैं सिर्फ यह लिखूंगा, कि मैं फिल्में क्यों देखता हूँ... सौभाग्यवश मैने सेटेलाइट व केबल टी.वी. को अपनी उम्र के साथ बढते देखा है,और मेरे विचार में केबल के आने के बाद से ही भारत में फिल्में गाँव ग़ाँव में देखी जाने लगी, अन्यथा, जैसा कि 'बुजुर्ग' लोग कह रहे हैं कि उनके बचपन में सिनेमा जाने पर कितनी पाबंदी होती थी और वैसे भी ये सर्वसुलभ नही होते थे...कभी मेले-तमाशे में जरूर आ जाया करते थे... तो फिर मूल प्रश्न पर आया जाये, कि मैं फिल्में क्यों देखता हूं.दरअसल अपनी छोटी सी जिन्दगी में उम्र के हर पडाव पर, इस सवाल का मेरा जवाब अलग अलग रहा होता...आज सब जवाबों को एक साथ Compile करने की कोशिश करता हूँ. फ़िल्में देखने की मेरी पहली यादें जुडी हुई है,'८६-८७ के करीब हमारे पुराने मकान में आये नये नये टी.वी. से. जमाना सिर्फ दूरदर्शन का था और टी

भारतीय व्यवसायिक ढाँचे (Indian Business Models)

Image
अमरीका और अन्य विकसित देशों में रहने वाले साहबान तो 'वाल-मार्ट' एवं 'के-मार्ट' जैसे स्टोर्स से परिचित होंगे ही, जहाँ आपको एक ही छत के नीचे तमाम तरह की वस्तुएं उपलब्ध होती हैं...भारत में भी महानगरों में माल-संस्कृति धीरे धीरे अपने पैर पसार रही है और यहाँ धडल्ले से कई रिटेल-स्टोर्स खुल रहे हैं.लेकिन हम आपको दिखाते हैं अपने 'इंडिया' का एकदम देसी शोपिंग स्टोर.आप इसे देसी वाल-मार्ट भी कह सकते हैं.वैसे ज्यादा उचित यह कहना होगा कि वाल मार्ट इन देसी दुकानों का अमेरिकन संस्करण है क्योंकि इन दुकानों के मुकाबले इसकी अवधारणा एक्दम नई है, वाल-मार्ट तो करीब '६० के दशक में अस्तित्व में आये हैं जबकि ये दुकानें, भारतीय गाँवों में सदियों से चली आ रही हैं. एक बात और, कई मामलों में इनकी सेवाएं(services),काफी आगे हैं, मसलन, ग्राहक यहां से सिर्फ सामन ही नही खरीदते, वरन् यहाँ अनाज एवं अन्य 'जींस'बेचे जाने की सुविधा भी है, यानी किसान यहाँ अपनी फसल भी बेच सकता है, और हाँ, एक बात तो हम भूल ही गये, आपको यहाँ, वित्तीय सुविधाएं(Financial Services) भी उपलब्ध हैं , यानी यहाँ से आप

नजरिया

Image
यह तस्वीर आज मेल में प्राप्त हुई.य़ह एक Optical Illusion(हिन्दी में शायद, दृष्टिभ्रम) है.ज़ब आप दोनो चेहरों जो पास से देखते हैं तो बांई ओर वाल चेहरा गुस्से में प्रतीत होता है और दाँयी ओर वाला सहज मुस्कान में. अब जरा अपनी कम्प्यूटर स्क्रीन से १०-१२ कदम दूर जाइये और पुनः दोनो चेहरे देखिये, स्थिति एकदम विपरीत दिखाई देगी, बाँई ओर वाल चेहरा सामन्य, सहज और दाँयी और वाला गुस्से में...ऐसा क्यों हुआ? तस्वीर वही, देखने वाल मैं वही,बदला क्या? सिर्फ दूरी...या नजरिया? य़ही बात कई बार मैं असल जिन्दगी में भी महसूस करता हूँ...लोग वही रहते हैं,मिलने वाले, देखने वाले,जानने वाले, पर फिर भी सब कुछ बदल जात है, सिर्फ एक चीज़ के बदलने से...देखने का नजरिया, या फिर कहें, आपका दृष्टिकोण...वक्त, हालत, परिस्थितियाँ, सब कुछ आपके नजरिये(या कहें Perception)पर निर्भर करती हैं... गिलास किसी को आधा खाली दिखता है, और किसी को आधा भरा,और यहीं सब कुछ इधर का उधर हो जाता है.आप कहाँ खडे हैं, किसके बारे में कैसा महसूस करते हैं, और क्यों करते हैं, सब कुछ यहीं आकर टिकता है.....

आपके मेल आइ-डी का पता...?

हिन्दुस्तान मे अभी भी अच्छे-अच्छे पढे लिखे और महानगरों में रहने वाले लोगों की इन्टरनेट और कम्प्यूटर के बारे क्या जानकारी और स्थिति है, इसकी एक बानगी... यह अनुभव अभी हाल ही में अपने हैदराबाद प्रवास के दौरान हुआ...संबन्धित व्यक्ति का नाम नही लिखूंगा, वैसे मुझे आशा नही कि इस लेख तक उनकी नजर कभी पहुँचेगी, फिर भी गर कभी पढें और उन्हे बुरा लगे तो अग्रिम क्षमा... तो साहब, अपने काम के सिलसिले में मै इन हजरात से मिलने पहुँचा.अपने विषय पर में इनकी जानकारी और पकड वाकई काफी गहरी थी, स्वतंत्र सलाहकार(Private Consultant) होने के अलावा ये उस विषय पर गठित कुछ समितियों के सदस्य भी हैं...पर चूँकि मै उन्हे कुछ सलाह राशि(Consultancy Fee) तो अदा कर नही रहा था बस एक अन्वेषक (Researcher)के नाते जितना कुछ फोकट में झाड सकता था और जितना कुछ वे बिना लिये बता सकते थे...वो मैने उनसे जाना और उन्होने मुझे बताया. चलते चलते मैने उनसे उनका मेल आइ-डी मांग लिया, ताकि भविष्य में जरूरत पडने पर संपर्क कर सकूं.उन्होने जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकालते हुए मुझे दो आइ-डी बताये और बोले, ये ऊपर वाला हैदराबाद का, और नीचे वाला

टिप्पणी.....?

अभी फुरसतिया जी की टिप्पणी-व्याख्या पढी, तो ये बात याद आ गयी. हैदराबाद प्रवास के दौरान भोलाराम से मिलना हुआ जो अपने जीवन की कुछ बा तें ब्लोग के माध्यम से व्यक्त करते हैं....वैसे भोलराम से हमार रिश्ता स्कूली दिनों से पहले है और एक ब्लोगर के रूप में बाद में...नवोदय विद्यालय पचपहाड में ये हमारे जूनियर थे... काफी दिनों बाद मिलना हुआ... बातों बातों में मैने पूँछा, यार आजकल लिखते नही हो कुछ ब्लोग पर...तो बोले, लिखना तो चाहता हूँ पर टिप्पणियों से डरता हूँ, मैने पूँछा क्यों, तो पता चला कि अभी थोडे दिन पहले भोला के एक पोस्ट पर 'तेज रफ्तार लेन में गाडी चलाने वाले' अतुल जी ने करारी टिप्पणी कर दी थी, कि क्या ये अपनी रामकहानी लिखते रहते हो...कुछ " अच्छा " लिखो...तो बेचारे भोला घबरा गये... खैर मैने उसे ढांढस बंधाया ..सो फिर बेचारा लिखने को तैयार हुआ है...अभी तक तो लिखा नही, देखते है, कब जागता है ;-)

वापसी

काफी दिनों बाद यहाँ लिखने का मौका मिला है...करीब एक सवा महीना हो गया...कैसे दिन बीते, पता ही नही चला..करीब एक महीने से फील्ड में था...लगभग ६००० किलोमीटर और चार राज्यों(झारखंड,उडीसा,आंध्रप्रदेश और छत्तीसगढ)का सफर... अनगिनत लोगों से मिलना,तरह तरह का खान पान,बोल-चाल,खट्टे-मीठे-क़डुवे अनुभव...जब फील्ड में होते हैं तो रोज कुछ नया महसूस होता है,नया अनुभव होता है, इतना कुछ होता है वहाँ लिखने के लिये, लेकिन लिखने का मौका नही मिलता...और कालेज पहुँचने के बाद फिर जिन्दगी में एकरसता आ जाती है क्योकि वहां बँधा-बँधाया ढर्रा चलता है, और व्यस्तताएं इतनी होती हैं कि बस.. बाहर साइबर कैफे पर जाकर तो हिन्दी मेल भी नही पढ सकते(हर जगह '९८), लिखना तो दूर कि बात, सबसे पहले तो यूनिकोड फान्ट डालना पडता है...खैर अब सारी कसर निकालने की कोशिश करूंगा(लिखने और पढने दोनो की) क़ल वापस उदयपुर पहुँचे है, अभी २-३ दिन गुजरात और जाना है, फिर रिपोर्ट बनानी है और फिर प्रस्तुतीकरण (presentation)उदयपुर और दिल्ली में...वापस IIFM पहुँचने तक ५ दिसम्बर हो ही जायेगी... दिवाली इस बार बडी फीकी रही, हैदराबाद में था...कोई साथ नही

कुछ तस्वीरें

Image
ये हैं राधेश्याम जो SPWD में ही कार्यरत हैं, फिर ज्योति , जो मेरी सहपाठी हैं और प्रोजेक्ट में मेरे साथ ही काम कर रही हैं और फिर विकास जो राधेश्याम के मित्र हैं और साथ ही रहते हैं...और ये चाय बडी अच्छी बनाते हैं :) गरबों के जगमग, सजधज और धूम धडाका

उदयपुर के गरबे और खाना

नवरात्रा शुरू हो गये हैं और किस्मत से मैं इस बार उदयपुर में हूँ अपने प्रोजेक्ट के लिये. गुजरात, जो कि गरबा और डांडिया क उद्भव स्थल माना जाता है, यहाँ से पास ही है..सो यहाँ होने वाले गरबों पर गुजराती 'टच' साफ दिखाई देता है.और अच्छी बात यह , कि मेरे आफिस के सामने ही एक पंडाल सजा हुआ है...तो आजकल रात को ११ बजे तक बैठ कर डांडिया रास का रसास्वादन किया जाता है... और उदयपुर का खान पान...क्या मिर्च खाते है यहाँ के लोग यार्..अपने तो आगे पीछे सब तरफ से धुआँ निकलने लगता है, ऊपर से तुर्रा यह कि जब टिफिन वाले से कहा कि भैया, खाने में मिर्च जरा कम डाला करो तो भाई बोला,"मिर्च ज्यादा कहाँ है...ये तो मीठी वाली मिर्च है "..ठीक है भाई, धन्यवाद तेरा जो तूने तीखी मिर्च नही खिलाई मुझे...

आजकल

काफी दिनों से यहाँ कुछ लिख नही पाया..शायद तब से, जब सोंचा था इ अब नियमित रूप से लिखूंगा...हुआ यह कि पहले तो हमारे collage LAN के cyber पहरेदार CYBEROAM महाराज को पता नही क्या सूझी...उन्होने ब्लोग से सम्बन्धित सभी साइट्स को porn category में डाल दिया...और सभी ब्लोगर साइट्स बंद...खैर उसके बाद हमें अपने दूसरे शैक्षणिक प्रशिक्षण(Organisational Training) पर निकलना था सो हमने भी कोई हाथ-पैर नही मारे.. और अब IIFM से बाहर हैं जहाँ मुफ्त नेट की सुविधा नही है सो कुछ लिख पाना कम ही संभव होता है..cyber cafe पर जाओ तो वहा हिन्दी में लिखने में असुविधा होती है..आजकल हम उदयपुर मं हैं... Society for the Promotion of Wastelands Development साथ . बायो डीजल से संबन्धित प्रोजेक्ट है..चार पाँच राज्य कवर करने हैं जिन्मे आंध्र प्रदेश्, छत्तीसगढ, उडीसा, झारखन्ड और गुजरात शामिल है..सो लगता है आने वाले दिन काफी धूम धाम से गुजरेंगे और घूमने का शौक तो है ही अपना... अभी २-४ दिन में उदयपुर देखा और घूमा..खुशी की बात यह है कि झीलों की इस नगरी की झीलें इस वर्ष करीब १० साल बाद पूरी भरी हैं अन्यथा अनावृष्टी की वजह से सब

ओणम

आज सुबह से(बल्कि कल रात से ही) मस्त मौसम बना हुआ है, खूब बारिश हो रही है भोपाल में, और कल ही अखबार में पढा था कि "मौसम विभाग के अनुसार शहर से मानसून विदा ले रहा है"...धन्य है मौसम विभाग. वही दूसरी और मेरे गृह राज्य राजस्थान में इस साल फिर अकाल की आशंका है.मेरा गाँव(sorry कस्बा) यहाँ से बस १७० किलोमीटर है..पर इंद्रदेवता वहाँ जाने को तैयार ही नही.... आज ओणम का त्यौहार है. उत्तर भारत में तो किसी को इसका पता भी नही होता , लेकिन दक्षिण में और खासतौर से केरल में यह बडी धूम से मनाया जाता है. मुझे इसलिये याद रह(आ)जाता है क्योंकि केरल के कई स्कूली मित्रों से अभी भी सम्पर्क में हूँ(इन्टरनेट की कृपा से) मैने भी अपनी जिन्दगी के दो ओणम केरल में ही बिताए हैं. जवाहर नवोदय विद्यालय,मलमपुझा,केरल में जब नवीं और दसवीं की पढाई की. ओणम पर स्कूल में ३-४ दिन का अवकाश हुआ करता था और सभी स्थानीय छात्र अपने अपने घरों पर जाया करते थे.अब चूँकि हम राजस्थानी छात्रों को घर भेज पाना सम्भव नही था(६ दिन तो आने जाने के लिये चाहिये)अतः हमें भी अपने स्थानीय मित्रों के साथ उन्ही के घरों पर भेज दिय जाता था.(हाँ

हिन्दी दिवस

आज हिन्दी दिवस था.पिछले १५ दिन से "हिन्दी पखवाडा" के तहत कई प्रतियोगिताएं चल रही थी. इन प्रतियोगिताओं मे ज्यादतर स्टाफ सदस्य ही हिस्सा लेते हैं, हम छात्रों में से सिर्फ मैं और भास्कर ...और कोई नही...शायद समय के कमी या रुचि की कमी? तो आज समापन समारोह था..मुख्य अतिथि थे, वरिष्ठ साहित्यकार पद्म श्री रमेश चन्द्र शाह.वैसे भोपाल साहित्यकारों, कवियों एवं कलाकारों का शहर है.भारत भवन में यहाँ नियमित रूप से प्रख्यात हस्तियों के कार्यक्रम होते रहते हैं, लेकिन हमारा दुर्भाग्य, हम आज तक भारत भवन नही जा पाए, रस्ता तक नही मालूम.वही,समय की कमी,थोडा आलस्य भी... पिछले साल जरूर हमने शायर मंजूर एहतेशाम साहब को संस्थान बुलाया था, लेकिन "पब्लिक" यानि छात्रों को जुटाने में पसीने आ गये थे...और हाँ पिछले हिन्दी दिवस पर डाक्टर विजय बहादुर सिंह मुख्य अतिथि थे तो उनको सुनने का मौका मिल गया था. तो आज शाह साहब की जो बात मुझे सबसे ज्यादा पसंद आयी वो उनका ये कथन कि अच्छी कविता लिखने के लिये अच्छा गद्य लिख पाना बहुत जरूरी है. उनके व्याख्यान का काफी हिस्सा इसी बात के इर्द-गिर्द था बात हमारे दिल म

...तो क्या

कल उषनीश ने एक शेर सुनाया था...क्या था वो तो मैं भूल गया पर अन्तिम दो शब्द याद रह गये जो थे...तो क्या..आज क्लास में बैठे बैठे इसी पर तुकबन्दी की... तुम क्लास जरूर आ जाया करो, यहाँ आकर फिर सो जाओ तो क्या? प्रोफेसर जी कुछ पूँछ लें गर, बतलाओ या ना बतलाओ तो क्या? सबसे पीछे की कुर्सी भली, वहाँ चुप बैठो या बतियाओ तो क्या? जब क्लास में हों नौ कन्याएं, बस देख उन्हें मुस्काओ तो क्या? exam में जब कुछ लिख ना सको, फिर इधर उधर तकियाओ तो क्या? जी भर कर फिर फन्डे फेंको, परिणाम देख गरियाओ तो क्या?

शिक्षक दिवस

आज शिक्षक दिवस है...सभी गुरुजनों को इस अवसर पर नमन्, जैसा कि जीतू जी ने भी कहा है..आज इस मुकाम पे नही होते..अगर आप सब नही होते.... अब सबसे पहले तो दैनिक भास्कर की इस खबर पर नजर डालें.....और फिर इन तुकबन्दियों पर... 1). जनगणना भी वो करें, पोलियो दवा भी पिलाएं, इससे भी कुछ समय बचे, तो "मिड डे मील" पकाएं, कोई हमें बताए, बडा यह प्रश्न है भारी, शिक्षक "शिक्षक" है, या फिर बाबू सरकारी? 2). गुरुजी की जरुरत नही ,कम्प्यूटर क्लास चलाएंगे, घर बैठे अब शिक्षार्थी के, ज्ञान की प्यास बुझाएंगे. कम्प्यूटर नही पकडे कान , कम्प्यूटर नही मारे बेंत, क्या देना है क्या नही, कम्प्यूटर नही जाने भेद. यहाँ मिलेगा विकी , यही पर "बाबा देसी", ज्ञान मिलेगा वैसा, जिसकी रही भावना जैसी. 3). कालेज कभी गया नही,Exam में सो गया, ट्यूशन कभी छोडी नही, चाहे जो हो गया, परिणाम जब आए, सब बोले चमत्कार हो गया, वो देखो..पप्पू पास हो गया. इस खबर को सुन कर एक बहुत तेज और हकीकत के जैसी खबरें देने वाले TV चैनल की संवाददायिनी फुर्ती से पप्पु के पास पहुँची(भई..पप्पू ने एकदम "नासा की परीक्षा में टाप&quo

तुम और मैं

यह कविता मुझे बहुत दिन पहले mail forward मै प्राप्त हुई थी..मुझे बहुत पसंद आई और इसे पढ कर मैं खूब हँसा. क्योंकि तब मैं हिन्दी ब्लोग नही लिखता था, अतः मैने इसे अपने अन्ग्रेजी ब्लोग पर जस का तस चिपका दिया था...आज सोंचा के क्यों न यहा भी इसे चिपका ही दिया जाए.इसके रचियता का नाम मालूम नही है..अगर आप जानते हों तो कृपया बताएं.. मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये तुम MA फर्स्ट डिविजन हो, मैं हुआ मेट्रिक फेल प्रिये मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये तुम फौजी अफसर की बेटी , मैं तो किसान का बेटा हूँ तुम रबडी खीर मलाई हो, मै तो सत्तू सपरेटा हूँ तुम AC घर में रहती हो, मैं पेड के नीचे लेटा हूँ तुम नयी मारुती लगती हो, मै स्कूटर लम्ब्रेटा हूँ इस कदर अगर हम छुप छुप कर, आपस में प्यार बढाएंगे तो एक रोज तेरे डेडी, अमरीश पुरी बन जाएंगे सब हड्डी पसली तोड मुझे वो भिजव देंगे जेल प्रिये मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये तुम अरब देश की घोडी हो, मैं हूँ गदहे की नाल प्रिये. तुम दीवाली का बोनस हो,

पढने का शौक - भाग -१

यह संस्मरण पहले एक ही बैठक मे ही लिखने का विचार किया था...पर लिखने लगा तो लगा कि एक बैठक में तो मै यह सब बयाँ कर ही नही सकता...पहली वजह तो यह कि एक बार में इससे ज्यादा हिन्दी टाइप करने की क्षमता और धैर्य मुझमें है ही नही...और वजह(यनि बहाने)सोंचते सोंचते ध्यान आया कि हिन्दी ब्लाग जगत के बडे नडे सूरमाओं ने अपने कई चिट्ठे कई कई कडियों में लिखे है...तो सोंचा...कि क्यों न उन्ही के पदचिन्हों पर ही चला जाये...शायद हम भी "कहीं" पहुँच जायें. तो सबसे पहली बात तो यह कि यहाँ पढने से मतलब "पढाई" से कतई न लगाय जाये, ऐसा इल्जाम अपन को एकदम नाकाबिलेबर्दाश्त होगा...वो इसलिये क्योंकि उसका शौक अपन को कभी रहा ही नही. बचपन से पढाई से तल्लुक सिर्फ इतना, कि बस किसी तरह काम चल जाये.लेकिन पढाई के अलावा बाकी सब जो पढने का नशा है वो ऐसा चढा हुआ है कि छूटता ही नही, ना छोडने की इच्छा है और ना ही इसकी कोई उम्मीद्.पढने की यह आदत मेरे जीवन के शुरु से ही शुरु हुई यानि काफी छुटपन से..करीब पाँच छ साल कि उम्र से ..जब कि इतनी शिक्षा हमारी हो चुकी थी कि किताबों मे लिखे हुए शब्द आराम से पढ और समझ लेते थे

दोस्ती का दिन

आज अगस्त माह का पहला रविवार है याने फ्रेन्डशिप डे...या मित्रता दिवस... या दोस्ती का दिन. ये कविता अपने सभी दोस्तों के लिए..उनका अनमोल साथ मांगने के लिए . दोस्त...तुम साथ दोगे ना ? जीत में, हार में, प्रीत में, रार में, जीवन के त्यौहार में, तुम... साथ दोगे ना ? आशा में, निराशा में, प्रश्नों में, जिज्ञासा में, जीवन की परिभाषा में, तुम... साथ दोगे ना ? वाद या विवाद में, अनकहे संवाद में, जीवन के आल्हाद में, तुम... साथ दोगे ना ? रुके में, बहाव में, इच्छाओं के फैलाव में, जीवन के पडाव में, तुम... साथ दोगे ना ? हास में, परिहास में, बातों की मिठास में, जीने के प्रयास में, तुम... साथ दोगे ना ? अर्श में, फर्श में, अवनति-उत्कर्ष में, जीवन के संघर्ष में, तुम... साथ दोगे ना ? आज और कल में, कुटिया या महल में, जीवन के हर पल में, तुम... साथ दोगे ना ? # नितिन

केबीसी-२

अभी थोडी देर पहले कौन बनेगा करोड्पति-२ का पहला एपिसोड देखा..वही अमितभ बच्चन की अदाएं और निराले अन्दाज, कुछ अत्यंत मूर्खतपूर्ण तो कुछ ठीक य अच्छे प्रश्न और ढेर सारे पैसों की बरसात.. गौरतलब है कि इस धारावाहिक ने करीब पाँच साल पहले स्टर प्लस और अमितभ बच्चन के डूबते हुए कैरियर, दोनो को पटरी पर लाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभई थी..करोड्पति कितने बने ये तो पता नही पर स्टार प्लस भारतीय मध्यम वर्ग के ड्राइग रूम का हिस्सा बन गया..अमितभ बच्चन ने फिल्मों मे धमाकेदार वापसी की और आज की तरीख मे वे बालीवुड के तमाम युवा अभिनेताओं को जमकर टक्कर दे रहे है और अपनी "सरकार" चला रहे हैं... और बात केबीसी-२ की ...तो भैया अमित जी का जादू तो कहीं जाने से रहा ...पर अपना मानना है कि जो मजा "पहली बार" में आता/होता है वो फिर दोबारा नही आता..और कम से कम फिल्मों के स्वीक्वेल का अपना तजुर्बा तो यही कहता है...सीरियल का क्या होता है ये राम जी जानें....वैसे वो कह ही रहे हैं कि "Don't loose the hope is the moral of the story".....

घडी इम्तिहान की

उस शाम को सोंचा था जब इस पल के बारे में, सोंचा था अभी दूर हैं घडियाँ मुकाम की. कब बीत गया वक्त कुछ ना खबर हुई, लगता है ऐसा जैसे वो कल ही कि शाम थी. लो...फिर आ गयी घडी इम्तिहान की. # नितिन

चोरी का डर ;-)

और भी चीजें बहुत सी लुट चुकी हैं दिल के साथ, ये बताया दोस्तों ने इश्क फरमाने के बाद, इसलिये कमरे की एक-एक चीज चेक करता हुँ मैं, इक तेरे आने के पहले, एक तेरे आने के बाद . (# SMS से) सुना है जब से, कि चोरी की उनकी आदत है, हमें हिफाजत-ए-सामां की सख्त दिक्कत है, हर वक्त गौर करे किसको इतनी फुरसत है, वो आए हमारे घर में खुदा की कुदरत है, कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते है. ( # सुरेन्द्र मोहन पाठक के एक उपन्यास से)

मैं

क्यों मैं, क्या मैं, क्या मेरा मन ? यह प्रश्न उठाता हूँ, बस सोंचता जाता हूँ, इस गूढ पहेली में, ना बीत जाए जीवन. नींदो से जागता हूँ, खुद से मैं भागता हूँ, बस शून्य ताकता हूँ, मन करता है स्पन्दन. किसके लिये हूँ खुश मैं, छाती है क्यों उदासी, देखूं क्यूँ ख्वाब इतने, जब जिन्दगी जरा सी ? पाया या जो कि खोया, मन हँसा या कि रोया, अरमान जो संजोया, कारण न कुछ प्रयोजन. क्यों मैं, क्या मैं, क्या मेरा मन ? # नितिन

महिमा हिन्दी फिल्मोँ की

Image
यह तस्वीर अभी पिछ्ले महीने उडीसा मेँ अपने प्रोजेक्ट के दौरान ली थी.जिस गाँव मेँ मैँ गया था वो मुख्य सडक से काफी अन्दर था.करीब ४-५ किलोमीटर साइकिल चलाने के बाद हमेँ साइकिल भी छोडनी पडी और दो पहडियाँ(लगभग ३ किलोमीटर )पैदल चल कर मैँ गाँव मेँ पहुचा.१५-२० घरोँ का टोला,क़ोई पानी बिजली की सुविधा नही, सडक् नही,स्कूल नही,साल मे सिर्फ तीन चार महीने का अनाज होने लायक खेती और बाकी समय जंगल पर निर्भरता, ये सब तो वो बातेँ थी जिनकी मुझे पहले से आशा थी क्योकि सँसाधनो से भरपूर र्होने के बाद भी उडीसा मे आम जनता(ज्यदातर आदिवासी)के हाथ मे कुछ नही पहुचता ये बात मे पिछ्ले २० दिनोँ मे देख चुका था. लेकिन जिस चीज़ ने मुझे सबसे ज्यादा आश्चर्य चकित किय वो थे इस घर मेँ लगे हुए बालीवुड कलाकारोँ के चित्र. य़ह अलग बात है कि वो लोग इनमेँ से किसी का नाम नही जानते थे लेकिन फिर हिन्दी फिल्मोँ की पहुँच का अहसास तो इस बात से हो ही जाता है. एक और चीज है और वो है हिन्दी फिल्म संगीत. मै कही भी गया चाहे वो गाँव हो या शहर , बस हो य जीप , मैने हर जगह सिर्फ और सिर्फ हिन्दी गाने बजते सुने..कही भी उडिया या अन्य भाषा के गाने नही सुने.

स्वीकार

मैने, हर हाल मे जीवन को जिया है। जिस-जिस ने मुझको जो दिया, मृदु पुष्प भी, कटु शूल भी, मन से या फिर मन मार कर, स्वीकार किया है।

घर

मिले ज़िन्दगी मे चाहे ठोकरे कई, लम्बे हो अनजाने कितने सफर. दुनिया मे चाहे कही भी रहूँ, मन का एक कोना पुकारता है "घर". # नितिन

जिन्दगी

ऐ जिन्दगी तेरा शुक्रिया। इस अजनबी संसार में, दुश्मन भी दिया,हमदम भी दिया। # नितिन
हिन्दी ब्लोग लिखने का सन्कल्प करीब चार महीने पहले लिया था जब मुझे पता लगा था कि हिन्दी मे भी ब्लोग लिखे जा सकते है और मैने हिन्दी चिट्‍ठे पढने शुरु किये और तब से बस बाकी लोगो के ब्लोग पढ कर काम चला रहा था। वैसे अगर मुझे बोलने और लिखने दोनो के मामले मे हिन्दी और अन्ग्रेजी मे से किसी एक को चुनना हो तो मै हिन्दी को ही प्राथमिकता देता हू, पर यहा इन्‍टरनेट पर (या कहे कम्‍प्‍यूटर पर)हिन्दी टाइप करने मे बडी समस्या आती है और वैसे भी हम ठहरे पक्के आलसी सो अपने अन्ग्रेजी ब्लोग के करीब ६ महीने बाद यह हिन्दी ब्लोग शुरु हो रहा है..इन चार पँक्‍तियो के साथ... बहुत दिनो से सोच रहे लिखना हिन्दी ब्‍लोग , ठहरे पक्के आलसी, लगा नही सन्योग। लगा नही सन्योग आज शुभ दिन यह आया, "इन्‍द्रधनुषी" चिट्‍ठा यह अस्तित्व मे आया।