हम फिल्में क्यों देखते हैं - अनुगूँज १५

जब से अनुगूँज का विषय घोषित हुआ है, सोंच रहा हूं, इस बार मैं भी लिख ही दूं वैसे भी यह वर्षगाँठ स्पेशल है, और विषय भी ऐसा है कि इस पर 'कुछ' लिखा जा सकता है.
तो जैसा कि सुनील जी पहले ही 'हम' को परिभाषित करने की कोशिश कर चुकें हैं. यहाँ तो मैं सिर्फ यह लिखूंगा, कि मैं फिल्में क्यों देखता हूँ...
सौभाग्यवश मैने सेटेलाइट व केबल टी.वी. को अपनी उम्र के साथ बढते देखा है,और मेरे विचार में केबल के आने के बाद से ही भारत में फिल्में गाँव ग़ाँव में देखी जाने लगी, अन्यथा, जैसा कि 'बुजुर्ग' लोग कह रहे हैं कि उनके बचपन में सिनेमा जाने पर कितनी पाबंदी होती थी और वैसे भी ये सर्वसुलभ नही होते थे...कभी मेले-तमाशे में जरूर आ जाया करते थे...
तो फिर मूल प्रश्न पर आया जाये, कि मैं फिल्में क्यों देखता हूं.दरअसल अपनी छोटी सी जिन्दगी में उम्र के हर पडाव पर, इस सवाल का मेरा जवाब अलग अलग रहा होता...आज सब जवाबों को एक साथ Compile करने की कोशिश करता हूँ.
फ़िल्में देखने की मेरी पहली यादें जुडी हुई है,'८६-८७ के करीब हमारे पुराने मकान में आये नये नये टी.वी. से. जमाना सिर्फ दूरदर्शन का था और टी.वी.मोहल्ले के ३-४ चुनिन्दा "डिब्बों" में एक (SONY Orson माडल का यह श्वेत-श्याम टी.वी. कई बरस तक हमारे घर का साथी बना रहा और अभी मात्र १०-११ महीने पहले Retire हुआ.)...तो उस समय सप्ताह में मात्र एक फिल्म आती थी, रविवार शाम ५:४५ पर...और वो हम किसी कीमत पर नही छोड सकते थे...फिल्म के बीच में सिर्फ एक 'ब्रेक' हुआ करता था...और फिल्म हम सिर्फ 'लडाई' देखने के लिये देखते थे...यानि फिल्म में अगर लडाई है, तो अच्छी, अन्यथा कोई काम की नही...अच्छा, यह कैसे पता चलेगा कि फिल्म में लडाई है या नही...अजी बडा सीधा सा मापदंड है, अगर फिल्म में अमिताभ, धर्मेंद्र, जीतेंद्र, मिथुन(ये नाम हमें सन ८७ में याद थे...) आदि में से कोई है, तो वो निश्च्चित रूप से लडाई वाली होगी.
मुझे आज भी याद है, कि एक रविबार को अमिताभ अभिनीत "सौदागर" आने पर मैं पूरे घर में खुश होकर चिल्लता फिरा था, लेकिन पूरी फिल्म में लडाई का इंतजार करता रहा.(अमिताभ उस फिल्म में गुड बेचते थे, और मुझे विश्वास ही नही हुआ था कि वो बिना मार-धाड वाली फिल्म भी बना सकते थे)...टी.वी. का कनेक्शन हमारे यहां एन्टीना से ना होकर डिश से था और डिश वाला कभी कभार फिल्म "लगा" दिया करता था, जिसका कि हमें हमेशा इन्तजार रहता था...अनिल कपूर की रामलखन से लेकर मिथुन की प्रेम प्रतिज्ञा तक, हमने डिश (जिसे हम डिक्स बोलते थे)वाले की कृपा से देखी.
कक्षा ६ में हमे मिला अपना वनवास(जिसे आज तक भोग रहे हैं) और हम घर से निकल कर जवाहर नवोदय विद्यालय, पचपहाड पहुँचे.य़हाँ पहले साल खूब फिल्में देखी, स्कूल का खुद का रंगीन टी.वी.-वी.सी,आर.था,और हमे लगभग हर शनिवार-रविवार नई/पुरानी फिल्में दिखाई जाती थी...फिल्म देखने का कोई लोजिक नही, बस फिल्म देखने के लिये फिल्म देखते थे, और एक फिल्म की कहानी और गाने, अगले पूरे सप्ताह चर्चा में रहते थे.
बदकिस्मती से अगले साल टी.वी.-वी.सी.आर. चोरी चले गये और अगले एक्-डेढ साल हम सिर्फ छुट्टियों में घर पर फिल्म देख पाते.उसमें भी Competition होता, कि कौन सबसे ज्याद फिल्में देख कर आता है, बाकायदा एक कोपी में नाम लिख कर लाते थे, और फिर सब फिल्मों की कहानियाँ डिस्कस होती थीं.कक्षा ८ का साल इस मायने में काफी महत्वपूर्ण रहा,हमने पहली बार सिनेमाघर में जाकर फिल्म देखी, इसके पहले, सिर्फ सिनेमा घर का नाम सुना था, कभी देखा नही था.पहली फिल्म जो देखी वो थी "फूल और काँटे"...फिर स्कूल में नया टी.वी. आया.दूरदर्शन ही आता था तब भी, लेकिन सप्ताह में दो फिल्मों के साथ.लेकिन हमें दोनो नही देखने मिल्ती थी, एक दिन सिर्फ लडके, और एक दिन सिर्फ लडकियाँ...ये नियम था हमारे (हाय हाय ये जालिम जमाना...)
अगले दो साल हमने केरल में बिताये और यहां हिन्दी फिल्मों का काफी अकाल रहा...तो क्या हुआ, ममूटी और मोहनलाल से अपना परिचय हुआ.वैसे समझ में ज्याद कुछ नही आता था.स्कूल से १-२ किलोमीटर दूर एक सिनेमा हाल था- कविता(कविथा-साउथ वालों के लिये)...वहां चोरी छुपे जाकर रात्री शो देखे गये(यहाँ पकडे जाने पर लोकल लडकों को Suspend कर देते थे, लेकिन राजस्थनियों को सस्पेंड करके २००० किलोमीटर दूर कैसे भेजते)...फिल्मे देखने का कारण अभी भी वही था, लडाई-मार-धाड ...हाँ अब गानों और हीरोइनों पर भी थोडा ध्यान देते थे,और धर्मेंद्र-जीतेंद्र की जगह अक्षय कुमार और सुनील शेट्टी ने ले ली थी...
यह क्रम इंजिनियरिंग कालेज पहुँचने तक चला और यहाँ आकर पहली बार हमें खुल्ले सांड की तरह पूरी आजादी मिली...पहले २ सालों में कितनी फिल्में देखी, कोई गिनती नही...अलवर में तीन टाकिज़ थे..."अशोका" "उन" फिल्मों के लिये बुक था और वहां अन्य कोई फिल्म नही लगती थी,बचे 'भारत' और 'गोपाल',तो यहां अंधेरे में बैठ कर हमने कितने घंटे गुजारे, खुद हमें गिनती नही.अलवर में एक फायदा था कि अक्सर नई फिल्म रिलीज होते ही लग जाती थी और टिकट दर बहुत कम थी(मात्र १७ रुपये बलकनी)...यहाँ आकर पहली बार हमें पता चला के नई फिल्में अमूमन शुक्रवार को रिलीज होती है...तो फिल्म प्रथम दिन-प्रथम शो ही होनी...हद से हद शो दूसरा,तीसरा या चौथा हो जाता लेकिन दिन पहला ही होना, चाहे कोई क्लास हो ...टिकट खिडकी पर मची कई मारामारियों और बेल्ट-हाकी युद्धों के हम साक्षात गवाह रहे...लेकिन चाहे १७ कि टिकट ३७ में खरीदें, फिल्म देखे बिना वापस नही...
तीसरे-चौथे वर्ष तक यह खुमार थोडा उतरा, थोडा CD-Computer आने का भी असर पडा, जब दोस्त के घर फोकट में फिल्म देख सकते हैं with चाय, तो टाकिज़ क्यों जायें?अंग्रेजी अखबार भी पढने लगे थे तो फिल्म समीक्षाओं का भी असर होने लगा...बाकी तो कालेज के जमाने की काफी अनुभव आशीष जी से मिलते जुलते हैं...जैसे परीक्षा समय की फिल्में...या फिर पिक्चर हाल में जम कर नाचना और मस्ती करना....(मुझे लगता है कि इस मामले में हर इंजिनियर की जिन्दगी एक जैसी होती है चाहे वो किसी रीजनल कालेज से हो या किसी झुमरीतलैया इंस्टीट्यूट आफ टेक्नालोजी नुमा संस्थान से)
इंजिनियरिंग कालेज से निकलने के बाद से तस्वीर काफी बदल गई हैं..लगता है, थोडी समझ भी आ गई है(अभी कुछ दिन पहले टी.वी. पर फूल और काँटे देख रह था, अजय देवगन का बाइक पर एंट्री सीन देख कर हँसी आ गई, किसी जमाने में वो मेरी पसंदीदा "लडाई-मार-धाड से भरपूर फिल्म थी")...फिल्में अब जब तक अच्छी रिपोर्ट वाली न हों, नही देखता,२-४ जगह उसकी समीक्षा (रेडिफ पर, TOI में, कुछ दोस्तों से)नही पढ सुन लेता, टाक़िज में फिल्म नही देखता(या फिर तब जब बिल्कुल मूड हो रह हो टकिज़ जाने का, पुरानी यादें तजा करने को)...अधिकतर फिल्में computer पे fast forward mode में देखी जाती हैं...
एक और आदत जो १-२ साल में लगी है, Star movies और HBO की बदौलत, मैं अन्ग्रेजी फिल्में काफी शौक से देखने लगा हूँ...कई फिल्में वाकई काफी रोचक होती हैं और कई फिल्मों के कुछ दृश्य देखते ही पत चल जाता है कि इसे टोप कर पहले ही कोई हिन्दी फिल्म बना दी गई है....क़ालेज टाइम में अंग्रेजी फिल्मों से काफी चिढ थी और HBO को हम Hyper Bhamaabham Operation कहते थे (सोंचिये क्यों)...
हाँ कोई अच्छी हिन्दी फिल्म आती है तो उसे कम्प्यूटर पे नही देखता...या तो टाकिज या ओरिजिनल VCD का इंतजार और वैसे भी साल भर में एक-दो अच्छी फिल्में भी नही आती...
तो अभी तक की तो यही कहानी है, कि मैं फिल्में क्यों देखता हूं

Comments

नितिन जी,

आप का लिखा पढ़ते वक्त लग रहा था कि अपने बारे में ही पढ़ रहा हूँ। मैं भी आप की तरह नवीं कक्षा में वनवास में आ गया था। उस समय एक आवासी या Residential Scholarship नाम की भारत सरकार की परियोजना थी जिसके चलते सरकार की रोटी तोड़ी।

पंकज
Dharni said…
नितिन जी, काफी रोचक वर्णन है, और पढ़्ने में मज़ा आया। ऐसे और लेखों का इंतज़ार है।

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