अभी अभी ध्यान गया कि कल, ९ जुलाई २००६ को हमारे इस चिट्ठे ने भी अपनी उम्र का एक वर्ष पूरा कर लिया. जैसी कि रीत है, इस अवसर पर पुनरावलोकन करने की कोशिश की जाती है, तो पहली और महत्वपूर्ण बात तो ये कि इस एक वर्ष में काफ़ी कुछ सीखा. थोडा बहुत लिखा, और सबसे रसभरी बात, काफ़ी कुछ पढने को मिला. दूसरी बात ये कि चिट्ठों के माध्यम से काफ़ी लोगों को जाना, काफ़ी मित्र बने. सागर जी से कुछ ही दिन पहले सक्षात भी मिल लिये....सही मायनों में पहली बार महसूस किया कि अंतरजाल नये लोगों को मिलाता है.हमारे सहकर्मी हेमनाथन से भी हमारा पहला परिचय ब्लोग(अंग्रेजी वाले) के माध्यम से ही हुआ था. लिखने की शुरुआत हमने कुछ कविताओं से की थी, लेकिन धीरे धीरे अपनी बकर की भडास भी यहीं निकालने लगे. वैसे लिखने में हमने कोई तीर नही मारे, लेकिन एक बात है कि चिट्ठा लेखन से हमारे सोंचने के तरीके में बदलाव जरूर आया (वैसे सोंचते हम पहले भी थे)..पर अब एक आदत ये हो गई है कि किसी भी घटना-दुर्घटना को देखते हैं तो उसके २-३ पहलू देख लेते हैं..और ये जरूर सोंचते हैं कि क्या इस बात को अपने चिट्ठे पर डाला जा सकता है...यदि हां तो कैसे(ये अलग बात...
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अब बड़े बुजुर्गो की झाड़ सुनो... "बबुआ तुम्हारा ध्यान कंही और रहता है आजकल, आज मोबाइल खोया है,कल घड़ी खो आओगे,परसों कुछ और। मोबाइल खोया तो खोया, जाने कम्प्यूटर मे क्या क्या खटर पटर करते रहते हो, उसको भी डब्बा बना दिया। अब जाओ इन्टरनैट कैफ़े, वंही से लिखो अपना ब्लाग शलाग"
रात को दो पैग लगाओ और सो जाओ। होना वही जो राम रच राखा ।
बुजुर्ग़ों की झाड सर माथे...वैसे हूं मैं बडा लापरवाह...बचपन से काफी चीजें(और कई बार पैसे भी) खोता आया हूं
कनिष्क जी...पैग तो हम लेते नही...लेग-पैग और सुट्टे से दूर रहने वाले इंसान हैं...कोई दूसरा उपाय?